Monday, May 18, 2015

सब अपने में खोये हैं


सब अपने में खोये हैं
आज का युग ही ऐसा है
जिसको देखो सब अनोखे हैं
कुछ न कुछ हुनर तो सब के पास है
न जाने क्यों कुछ ज्यादा हैं शर्मीले हैं
वैसे ये अच्छी बात है
विनयशील होना आज तो अनोखी बात है
पर किसी की कद्र करने में क्यों हम पीछे हैं
किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट लाना बड़ी बात है
सब इसे जान कर भी अनमने से हैं
प्रशंसा सही करना है
झूठ में क्यों सब भरमाते हैं
प्रोत्साहन जी भर के करना है
पर सब सच का भी सामना तो करते हैं
मुस्कुराइए छोटी सी बातों पर
ठहाके लगाने से तो लोग अब डरते हैं। 

Monday, April 27, 2015

धरती का ये विलाप

नेपाल बिहार और कुछ अन्य स्थानो पर भूकम्प के बाद जिंदगी काफी मर्माहत है. हताहतों के परिजनों को मेरी संवेदनाएं और उनके इस दुःख कम करने और उनका हौसला बढ़ने को कुछ पंक्तियाँ

धरती का ये विलाप
धरती ने किया अट्टहास
नया और ये दुख़दायी इतिहास
जीवन उजड़ा , घर टूटे
कितनो के जीवन छूटे
कहते जिसको अपना घर
वो चारदीवारी हुई अब एक कहर
नीड़ के लिया नीर बहाया
न जाने क्या क्या गंवाया।

मानवता को जो चोट लगी है
दुःख ने आज कहर है ढाया
अपनों से अपने का, पर ये हौसला
क्या और कौन परखेगा ?
उस पर्वत से भी ऊँची है
जिसको इस धरती ने आज डुलाया।

उठ जायेंगे जी जायेंगे
अपनों के संग मिल कर
फिर रम जायेंगे
नया कुछ ऐसा बनेगा
जो सदियों याद रखेगा
इतिहास की इस दुखद याद के साथ
नया कुछ निर्माण फिर हौसलों को उड़ान देगा। 

Thursday, March 5, 2015

होली तो हो ली

होली तो हो ली

होली तो हो ली,
अब भी है क्या, कही मस्तों की टोली ?
अब है कटु बोली
या बची है,  होली की अद्भुत हंसी - ठिठोली ?

काले पुते रंगों का हाल
या बचा है सुर्ख लाल हुए गाल ?
न सत व्यवहार, सिर्फ व्यविचार
या कहीं है प्यार और मनुहार ?

बेतुके से गीतों की भीड़
या कहीं है फाग और फगुआ का नीड़ ?
कुछ ढूंढे बैठे खाली, या फिर
अपने अनतरमनं में बैठी नयी नवेली ?

देखें मतंगों की टोली
या बन बैठे मस्तो के हमजोली ?
कर ले रंगो से दुरी,
या नए रंग भर ले जैसे ये सतरंगी होली।

Friday, February 27, 2015

कुछ दिनों से आँगन में चहचाहट नहीं


कुछ दिनों से आँगन में चहचाहट नहीं

कुछ दिनों से आँगन में चहचाहट नहीं,
कुछ दिनों से घर में कोई आदत नहीं है
अभी कुछ भी बिखरा नहीं
ये घर कुछ दिनों से अकेला है
इसमें कोई आहट नहीं।

चहुँ ओर नीरसता है
कही कोई मुस्कुराहट नहीं
इन दिनों गमलों में कोई फूल नहीं
और कहीं फूलों में सुरभि भी नहीं
ये घर कुछ दिनों से अकेला है
इसमें कोई आहट नहीं।

कुछ कहीं गुम है
जैसे कहीं कोई चाहत नहीं
काफी दिनों से शाखों पे नए कोंपले नहीं
कुछ दिनों से पत्तों में चटक रंग भी नहीं है
ये घर कुछ दिनों से अकेला है
इसमें कोई आहट नहीं।

मुस्कुराहटें भी अब आती नहीं
जैसे नदियों में पानी तो है
पर कलरव - कल कल की वाणी नहीं
तुम्हारी मासूम सी मुस्कुराहट के बिना,
मेरी बिटिया,
ये घर कुछ दिनों से अकेला है
इसमें कोई आहट नहीं।

वो तुम्हारी छोटी - छोटी शरारतें
नन्हे मीठे से सुर भरे बोल
तुम्हारे बिना, मेरी बिटिया
सब शुन्य है , कहीं कुछ सवाल नहीं
ये घर कुछ दिनों से अकेला है
इसमें कोई आहट नहीं।

Tuesday, February 24, 2015

उन उदास रंगों में रमना चाहता हूँ


उन उदास रंगों में रमना चाहता हूँ

कुछ कहना चाहता हूँ
इस साँझ के झरोके में
क्षितिज के पार
उन उदास रंगों में रमना चाहता हूँ।

छितराई हुई मैली सी इस साँझ में खोना चाहता हूँ
संध्या के प्रहर जब लाली अपने को समेटती है
उस पल में भरपूर उतारना चाहता हूँ
उन उदास रंगों में रमना चाहता हूँ।

प्रकृति के अबूझ विस्तार में
उषा से संध्या के राज में
जब जीवन खोता है
उस पल को समझना चाहता हूँ
उन उदास रंगों में रमना चाहता हूँ।

किरणों के समक्ष चमकते या डूबते
उन सभी विस्तारों को पाना चाहता हूँ
उन रंगो के परे अबूझ से विस्तृत
सभी नहीं तो कुछ ही सही
सीमाओं को जानना चाहता हूँ
उन उदास रंगों में रमना चाहता हूँ।

कुछ कहना चाहता हूँ
इस साँझ के झरोके में
क्षितिज के पार
उन उदास रंगों में रमना चाहता हूँ।  

Tuesday, February 17, 2015

इ मनुष्य त मझधारी अछि


इ मनुष्य त मझधारी अछि।


मोन त उल्लास के तरंग से आतुर अछि
मुदा, विचित्र निश्तब्धता के साथी अछी
कलरव सुनलौं पंछी के,
देखलौं क्षितिज पर नीरस मेघ
मोन त व्याकुल अछि
गोधूलि के बेला में
मोन कियाक प्रताड़ित अछि

सब पंछी उड़ल अपन व्यवहार
किछ त एहि में परिभाषित अछि
केयो नहीं बिसरल रीत अपन
हम सब कियाक नहीं अनुगामी छी
डगर कतय नगर कतय
नीर अपन नहीं जानि
नहीं किछ व्यवहारिक अछि
इ मनुष्य त मझधारी अछि

किछ त मनुष्यक दोष अछि
किछ त मोनक प्रयोग अछि
बिसरलौं सब अपन जिम्मेवारी
अपन स्वार्थक क्रोध बड्ड भारी
मूल नहीं घर नहीं
गाम नहीं, किनहुँ नहीं
किछ के नहि अधिकारी अछि
इ मनुष्य त मझधारी अछि

मोन त उल्लास के तरंग से आतुर अछि
मुदा, विचित्र निश्तब्धता के साथी अछी
कलरव सुनलौं पंछी के,
देखलौं क्षितिज पर नीरस मेघ
मोन त व्याकुल अछि
गोधूलि के बेला में
मोन कियाक प्रताड़ित अछि

इ मनुष्य त मझधारी अछि।  

Thursday, January 29, 2015

ब्रम्हांड में सबका अपना एक कोना है


ब्रम्हांड में सबका अपना एक कोना है

ह्रदय की धुरी में अनर्थ का गचना है
सशंकित हैं, फिर भी मन का रसना है ,
संक्षिप्त इस राह में तृष्णा है,
निश्चित हिं,
ब्रम्हांड में सबका अपना एक कोना है

त्रिशंकु बन कर रमना है
मोक्ष की आशा है, फिर भी माया के भंवर में बहना है
सत्कर्म, स्वार्थ का भंजक बन उपहास उड़ाना है,
निश्चित हिं,
ब्रम्हांड में सबका अपना एक कोना है

निश्चित ही यमधार का सामना है
फिर भी, नहीं कहीं मन्दाक्ष का गहना है
संकुचित जगत में असीम उड़ान है
निर्भय हो उस सत पथ पर जाना है
निश्चित हिं,
ब्रम्हांड में सबका अपना एक कोना है।

ह्रदय की धुरी में अनर्थ का गचना है
सशंकित हैं, फिर भी मन का रसना है ,
संक्षिप्त इस राह में तृष्णा है,
निश्चित हिं,
ब्रम्हांड में सबका अपना एक कोना है